पितरों की मोक्ष भूमि गयाजी में 16 दिवसीय पितृपक्ष मेले का आज पांचवां दिन है। आज आश्विन कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि है। इस दिन श्रद्धालु सरस्वती तीर्थ में तर्पण और पंचरत्न दान करते हैं। इसके साथ ही मातंगवापी और धर्मारण्य तीर्थ में श्राद्ध का विधान है। मान्यता है कि इस दिन सबसे पहले सरस्वती तीर्थ में तर्पण और दान करना अनिवार्य है। इसके बाद माता सरस्वती की पूजा और दर्शन होती है। पुराने मान्यता के अनुसार यह तीर्थ कभी निरंजना, मुहाने और गुप्त धारा वाली सरस्वती नदी के संगम स्थल पर था। वर्तमान में यह मुहाने नदी के किनारे और निरंजना नदी के पूर्व दिशा में स्थित है। यहां से दक्षिण की ओर बढ़ते ही मातंगवापी तीर्थ आता है, जहां श्राद्ध कर मतंगेश्वर शिवलिंग का पूजन किया जाता है। इसके बाद पूर्व दिशा में स्थित धर्मारण्य तीर्थ में श्राद्ध और धर्मेश्वर शिवलिंग का दर्शन होता है। युधिष्ठिर ने यहीं यज्ञ किया था कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने यहीं यज्ञ किया था, जिससे यह स्थल परम पावन हो गया। यहां किया गया त्रिपिंडी श्राद्ध विशेष फलदायी माना जाता है। श्रद्धालु मानते हैं कि इससे भूत-प्रेत बाधा, गृह कलह, शारीरिक पीड़ा, पितृदोष और असाध्य रोग दूर होते है। खास बात यह भी है कि यहां एक कुआं है। उसी कुएं में त्रिपिंडी श्राद्ध करने वाले पिंड डालते हैं। पिंड डालते वक्त पीठ के पीछे कुआं होता है और पिंडदानी अपने सिर के ऊपर से कुएं में पिंड डालते हैं। इस दौरान न तो कुएं की तरफ पलट कर देखना होता है न ही कुएं में झांकना होता है। कैमरा का इस्तेमाल करना प्रतिबंधित मन्दिर परिसर में कैमरा का इस्तेमाल करना प्रतिबंधित है। कभी कभी पिंडदान करने के दौरान मन्दिर परिसर के अंदर डरावनी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। पिंडदान पूरी तरह से वैदिक विधान से निपुण ब्राह्मण ही कराते हैं। यह हर किसी ब्राह्मण के बस की बात नहीं है। त्रिपिंडी के तहत मूल रूप से भगवान ब्रह्मा, विष्णु व महेश की पूजा होती है। पिंडदान करने के दौरान पिंडदानी के कोई न कोई सदस्य उलटी सीधी हरकत व आवाज निकालने लगता है। यही वजह है कि उस दौरान मन्दिर परिसर में बच्चों के प्रवेश पर भी मनाही है। धर्मारण्य के अलावा नियमित रूप से विष्णुपद मन्दिर व देव घाट में पिंडदान की क्रिया जारी रहती है। एक दिवसीय पिंडदान करने वाले विष्णुपद ही आते हैं और पिंडदान करते हैं। तीर्थ यात्रा का समापन बोधगया जाकर बोधिवृक्ष के दर्शन से होता है। कहा जाता है कि इस वृक्ष का मात्र दर्शन ही पितरों का उद्धार कर देता है। अंत में श्रद्धालु वागेश्वरी देवी का पूजन करते हैं और यहीं से आशीर्वाद लेकर घर लौटते हैं।