बक्सर में दीपावली बाद निभाई गई 'दरिद्र पिटाई' परंपरा:गांवों में गूंजी 'सूप पीटने' की आवाज, नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने का प्रतीक
बक्सर में दीपावली के अगले दिन 'दरिद्र पिटाई' की सदियों पुरानी परंपरा पूरे उत्साह के साथ निभाई गई। मंगलवार की सुबह सूर्योदय से पहले ही गांवों में सूप पीटने की आवाजें गूंजने लगीं। हर घर से महिला और पुरुष हाथों में टूटा सूप, झाड़ू या लोहे का कोई औजार लेकर निकले और 'ईश्वर पइसे, दलिद्दर भागे' का जयघोष करते हुए प्रतीकात्मक दरिद्रता को घर से बाहर निकाला। यह परंपरा रातभर चली लक्ष्मी पूजा के बाद तड़के सूर्योदय से पहले निभाई जाती है। स्थानीय लोगों का मानना है कि दीपावली की रात देवी लक्ष्मी घर में प्रवेश करती हैं, लेकिन उनके साथ दरिद्रता भी घर के किसी कोने में छिप जाती है। इसी दरिद्रता को अगली सुबह सूप पीटकर घर से बाहर भगाया जाता है। इस अनुष्ठान को 'दरिद्र पिटाना' या 'दलिद्दर भगाना' भी कहते हैं। पूर्वजों के समय से चली आ रही परंपरा गांव की बुजुर्ग महिलाओं के अनुसार, यह परंपरा उनके पूर्वजों के समय से चली आ रही है। हालांकि, वे इसके पीछे किसी विशिष्ट धार्मिक या वैज्ञानिक कारण से अनभिज्ञ हैं, लेकिन लोगों की आस्था इतनी गहरी है कि आज भी यह रीति हर घर में पूरी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है। जिन घरों में महिलाएं नहीं होतीं या बाहर नहीं निकल पातीं, वहां पुरुष इस परंपरा का निर्वहन करते हैं। चौसा गांव की उर्मिला देवी ने बताया, 'हमारे पूर्वज कहते थे कि दीपावली के बाद घर के कोने-कोने से दरिद्रता को निकाल देना चाहिए। इसलिए सुबह-सुबह सूप पीटते हैं ताकि घर में सुख-समृद्धि बनी रहे।' दरिद्रता को घर से निकालने के बाद ग्रामीण खेतों या पुरानी बस्तियों (डीह) में पहुंचकर उस प्रतीकात्मक 'दरिद्र' को जला देते हैं। नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने का प्रतीक पंडित राकेश चौबे के अनुसार, दिवाली के अगले दिन सूप बजाने की परंपरा दरिद्रता और नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने का प्रतीक है। सुबह लगभग 4 बजे महिलाएं टूटा सूप लेकर घर के हर कोने में घूमते हुए 'बैठ लक्ष्मी, भाग दरिद्रता' का उच्चारण करती हैं। मान्यता है कि जिस प्रकार सूप अनाज को छानकर शुद्ध करता है, उसी तरह यह घर से गरीबी और नकारात्मकता को भी दूर करता है। सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखने का भी प्रतीक इस दिन किसी से पैसे न लेना-देना और झाड़ू से निकला कचरा सूप में डालकर घर से दूर फेंकना शुभ माना जाता है। यह परंपरा न सिर्फ धन-संपत्ति बढ़ाने बल्कि मानसिक शांति और सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखने का भी प्रतीक है। इसके साथ ही एक और दिलचस्प रिवाज भी निभाया गया। घर की महिलाएं दीपक की लौ पर हंसुआ को गर्म करके उससे काजल बनाती हैं। उस काजल को घर के सभी सदस्यों की आंखों में लगाया जाता है। मान्यता है कि इससे बुरी नजर दूर रहती है और शरीर रोगमुक्त होता है। यह परंपरा आज उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश गांवों में मनाया गया। आधुनिकता के इस दौर में भी लोग अपने पूर्वजों के इन रीति-रिवाजों को संजोए हुए हैं। दरिद्र पिटने की आवाज, खेतों में उठता धुआं और लोगों के चेहरों पर श्रद्धा का भाव यह साबित करता है कि लोकविश्वास अब भी ग्रामीण जीवन की आत्मा है।
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